आज हम सभी परिवार में या समाज में अनेक ऐसी परंपराएँ निभा रहे हैं जिनके पीछे का कारण न तो हमें पता है और न ही हमने कभी जानने की कोशिश की. शायद हमें वे चीजें करने में मजा आता है या हम इसलिए करते हैं कि क्या फ़र्क पड़ता है? लेकिन यह कोई ज़रूरी नहीं कि ऐसी किसी परंपरा को निभाना आपके स्वजनों को भी अच्छा लगे और तब अचानक आप अनुभव करते हैं कि उनमें संस्कार नहीं हैं. जबकि ऐसी किसी परंपरा को निभाना संस्कारों के अंतर्गत आना ही नहीं चाहिए.
हमें अवश्य ही जानना चाहिए कि हम जो कर रहे हैं उसकी वास्तविक वजह क्या है? आखिर… यह परंपरा क्यों है?
अन्यथा हम भी मूर्खता के सिवा और कुछ नहीं कर रहे.
एक बार की बात है… सेना में एक नए कमांडर की नियुक्ति हुई.
नियुक्ति में उस कमांडर ने देखा कि दो सिपाही एक बैंच की पहरेदारी कर रहे हैं…
कमांडर ने सिपाहियों से पूछा कि वे इस बैंच की पहरेदारी क्यों कर रहे हैं?
सिपाही बोले कि हमें पता नहीं है सर, लेकिन आपसे पहले वाले कमांडर साहब का आर्डर था कि इस बैंच की पहरेदारी की जाए.
सर शायद ये इस कैम्प की परंपरा है… क्योंकि, शिफ्ट के हिसाब से चौबीसों घंटे इस बैंच की पहरेदारी की जाती है.
कमांडर ने पिछले कमांडर को फोन किया और पूछा कि उस बैंच की पहरेदारी का आर्डर क्यों दिया गया है?
पिछले कमांडर ने कहा “मुझे नहीं पता, लेकिन मुझसे पिछले कमांडर का आर्डर था कि उस बैंच की पहरेदारी की जाए… तो परंपरा के अनुसार मैंने उनके आर्डर को कायम रखा था.”
नया कमांडर बहुत हैरान हुआ…
उसने पिछले 3 कमांडरों से बात की…
सबने वही जवाब दिया…
ऐसे ही पिछले कमांडरों से बात करते हुए फाइनली कमांडर की बात एक रिटायर्ड जनरल से हुई जिनकी उम्र लगभग 100 साल हो चुकी थी…
कमांडर ने उन्हें फ़ोन किया और कहा,
“आपको परेशान करने के लिए क्षमा चाहता हूं सर… दरअसल, मैं उस कैम्प का नया कमांडर हूं, जिसमें लगभग 60 साल पहले आप कमांडर थे. यहाँ काफ़ी सालों से एक बैंच की पहरेदारी करने का आर्डर चल रहा है, दो सिपाही इस बैंच की पहरेदारी में आज भी तैनात रहते हैं…
क्या आप मुझे इस बैंच की पहरेदारी के आर्डर के बारे में कुछ जानकारी दे सकते हैं?
रिटायर्ड जनरल ने याद किया और बोले
“हाँ! वो चौकसी का आर्डर मेरा ही था, क्योंकि उस बैंच पर पेंट किया गया था… लेकिन!!! उस बैंच का “ऑइल पेंट” अभी तक नहीं सूखा?!!!”
